कोरोना काल कहीं न कहीं हम सबके जीवन में एक छाप छोड़ कर गया हैं। हम सबने उस कठिन दौर का सामना किया हैं। कोरोना ने कई लोगों की जिदंगी को तहस नहस कर दिया है, बहुत से लोगों ने अपने खास लोगों को खोया है और कइयों का रोजगार उनसे छिना गया है। आज हम बात करेंगे कुछ ऐसे बदलाव (Badlav) के बारे में जिससे लोगों की ज़िंदगी बदल रही है।
ऐसे ही एक व्यक्ति हैं सोनू जिनका कोरोना महामारी में रोजगार चला गया था। जो लोग अपने गाँव पहुंचे हैं वह वहां भी जिंदगी से जद्दोजहद कर रहे हैं और जो लोग शहर में हैं उनकी मुश्किलें भी कुछ कम नहीं रहीं।
आज हम बात करेंगे कुछ ऐसे लोगों की जिन्हें हालातों ने भिखारी बनने पर मजबूर कर दिया। पर अब ये भीख (Beggars) न मांग कर रोजगार कर रहे हैं। इस आर्टिकल को पढ़ने के आप खुद में आत्मनिर्भरता और हिम्मत महसूस करेंगे।

तो यह कहानी हैं सोनू झा की
वैसे तो सोनू झा मूल रुप से बिहार के समस्तीपुर जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर शाहपुर पटोरी गाँव के रहने वाले हैं। सोनू के पिता रोजगार की तलाश में कई साल पहले ही परिवार समेत लखनऊ आ गये थे। बीमारी की वजह से इनके पिता का साल 2001 में देहांत हो गया। सोनू की पांच बहने हैं। पिता के देहांत के बाद घर के खर्चे की ज़िम्मेदारी सोनू के कंधों पर आ धमकी। सोनू की माँ और बहनें मजदूरी करती थीं। यही वो शहर है जहाँ सोनू का परिवार पिछले 20-25 साल से मेहनत-मजदूरी कर के गुजारा कर रहा था। इस शहर से सोनू के परिवार को बहुत उम्मीदें हैं।
शरद लखनऊ में 2 अक्टूबर 2014 से ‘भिक्षावृत्ति मुक्त अभियान’ चला रहे हैं। शरद द्वारा 15 सितंबर 2015 को एक गैर सरकारी संस्था ‘बदलाव‘ (Badlav) की नींव रखी जो लखनऊ में भिखारियों के पुनर्वास पर काम करती है। शरद ने अभी तक 3,000 भिक्षुकों पर एक रिसर्च किया जिसमें 98% भिक्षुकों ने कहना हैं कि अगर उन्हें सरकार से पुनर्वास की मदद मिले तो वो भीख मांगने जैसा काम कभी न करे। लखनऊ में जो लोग भीख मांग रहे हैं उनमे से 88% भिखारी उत्तर प्रदेश के है जबकि 11% अन्य राज्यों से हैं। जो लोग भीख मांग रहे हैं उनमे से 31% लोग 15 साल से अधिक समय से भीख मांगकर ही गुजारा कर रहे हैं।
बदलाव ( Badlav) संस्था बदल रही है ज़िन्दगी
इनमें से एक शख्स वो भी हैं जिसकी दुकान पर दबंगों ने जबरन कब्ज़ा कर पत्नी को मार डाला। एक वो भी शामिल था जिसे कुष्ट रोग हो गया था जिसकी वजह से घरवालों ने निकाल दिया। इन सब में एक शख्स ऐसा भी था जो परिवार को अच्छी जिदंगी देने के लिए नौकरी करने शहर आया पर यहां हालात ने हाथ में कटोरा पकड़ा दिया।
जो लोग एक बार भीख (Begging) मांगना
शुरू कर देते हैं उन्हें भीख माँगना छुड़वाकर रोजगार के लिए प्रेरित करना इतना आसान काम नहीं है। रोज फील्ड पर उतरकर इनको समझाना पड़ता है, एक रिश्ता बनाना पड़ता है, इन्हें भरोसा दिलाना पड़ता है, कभी तो काउंसलिंग करनी पड़ती है तब कहीं जाकर ये शेल्टर होम में आने को राज़ी होते हैं। लगभग इन पर छह महीने की कड़ी मेहनत के बाद इनके व्यवहार में परिवर्तन कर इन्हें छोटे-छोटे माइक्रो बिजनेस शुरु करा पाते हैं।
आज की चकाचौंध दुनिया में भी, बहुत ही साधारण पहनावे में एक बैग टांगकर शरद अकसर आपको भिखारियों से बाते करते हुए लखनऊ में दिख जायेंगे। शरद पटेल (Sharad Patel) का कहना हैं की जब से कोरोना आया हैं तब से भिक्षुको की में ये संख्या और ज्यादा बढ़ गयी है। अभी भीख मांगने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ रही है। इस कोरोना काल में शरद ने 30 लोगों को भीख माँगना छुड़वाकर उन्हें रोजगार से जोड़ा है।
देशभर में भिखारियों की संख्या (Beggars number in country)
सामाजिक कल्याण मंत्रालय की इस लिस्ट में एक बात स्पष्ट हुई है कि पर्वतीय प्रदेशों में भिखारियों की संख्या काफी कम है। उत्तराखंड में 3320 भिखारी और हिमाचल प्रदेश में 809 भिखारी हैं। दिल्ली में भिखारियों की संख्या 2187 है। केंद्र शासित दमन और दीव में 22 भिखारी और लक्षद्वीप में सिर्फ 2 ही भिखारी हैं। अरुणाचल प्रदेश में 114, नगालैंड में 124, मिजोरम में सिर्फ 53 भिखारी ही हैं।
धनीराम रैदास
सोनू झा के खिलौने की ठेलिया से कुछ ही दूरी पर फटे कपड़ों की सिलाई करने वाले 53 वर्षीय धनीराम रैदास (पप्पू) का कहना हैं की पहले वे एक बड़े शोरूम में पर्दे और गद्दियों के कवर सिला करते थे। पर एक हादसे के दौरान धनीराम का पैर टूट गया, वो बैशाखी से चलने लगे। मार्च में जब उन्हें आराम मिला तो फिर से काम करने के लिए निकले पर तब तक कोरोना दस्तक दे चुका था। उन्हें काम पर नहीं रखा गया, पैर टूटने की वजह से उनके अपनों ने भी उनका साथ छोड़ दिया इसलिए वापस कभी घर जाने का मन नहीं हुआ। धनीराम की ऐसी हालत हो गई थी की उनको चार-पांच महीने हनुमान सेतु मन्दिर पर मांगकर खाना खाया।
धनीराम ने बहुत पुलिस की लाठियां खाईं हैं। मंदिर में जब खाना बंटता था तब बहुत छीना-झपटी करनी पड़ती थी तब कहीं जाकर खाना नसीब हो पाता था। पर जब से धनीराम शेल्टर होम में रहने आए हैं उनको मानो सुकून सा मिल गया हो। कुछ दिनों पहले ही शरद ने धनीराम को सिलाई मशीन दिला कर दी है। वो रोड पर बैठकर सिलाई करते हैं और दिन में 100-50 रुपए कमा लेते हैं आ जाते है।
सोनू झां और धनीराम की तरह नगर निगम द्वारा संचालित ऐशबाग मील रोड पर बने एक शेल्टर होम में फिलहाल 22 लोग रह रहे हैं। जिनका संचालन कुछ गैर सरकारी संगठन कर रहे हैं।
अजय कुमार
अजय कुमार जो की कमर के निचले हिस्से से पूरी तरह से दिव्यांग है। अजय ने ट्राई साइकिल में ही एक छोटी से दुकान खोल ली है जिसमें वह मास्क, चिप्स, कुरकरे, बिस्किट जैसे कई समान को बेचने का काम करते है। अजय का कहना है की वे आठ नौ साल से लखनऊ में भीख मांग रहे है, पैरों से चल न पाने की वजह से लोग उन पर कुछ ज्यादा तरस खाते थे। अजय दिन में हजार डेढ़ हजार कभी इससे ज्यादा भी कमा लेते थे, वे बहुत नशेड़ी हो गए थे। कुछ महीने पहले ही वे शेल्टर होम आए हैं। शरद ने अजय की दुकान खुलवा दी है, दिव्यांग होने की वजह से यहाँ भी लोग अजय पर तरस खा जाते हैं। दिनभर में अजय की हजार, पन्द्रह सौ, दो हजार तक की बिक्री हो जाती है।”
शरद द्वारा किए गए शोध के अनुसार
65% लोग ऐसे हैं जो नशे के आदी हैं जिसमें 43% तम्बाकू खाते हैं और 18% बीड़ी, सिगरेट, स्मैक जैसे नशा लेते हैं।
19% भिक्षुक तम्बाकू, धूम्रपान और शराब तीनो प्रकार के नशों का सेवन करते हैं।
38% भिक्षुक सड़क पर रात काटते हैं। 31% भिक्षुकों के पास झोपड़ी है जबकि 18% कच्चे मकान और आठ फीसदी के पास पक्के मकान हैं।
31% लोग गरीबी , 16% विकलांगता, 14% शारीरिक अक्षमता, 13% बेरोजगारी, 13% पारम्परिक वहीं तीन फीसदी लोग बीमारी की वजह से भीख मांगने को मजबूर हैं।
38% भिक्षुक विवाहित हैं जबकि 23% अविवाहित। इनमे से 22% विदुर,16% विधवाएं शामिल हैं।
66% से अधिक भिक्षुक व्यस्क हैं, जिनकी उम्र 18-35 वर्ष के बीच है। 28% भिक्षुक वृद्ध हैं, पांच प्रतिशत भिक्षुक 5-18 वर्ष के बीच के हैं।
भीख मांगने वालों में 71% पुरुष जबकि 27% महिलाएं इस व्यवसाय से जुड़ी हैं।
इनके बीच अशिक्षा का आलम ये है कि 67% बिना पढ़े-लिखे हैं, लगभग सात प्रतिशत भिक्षुक साक्षर हैं और 11% पांचवी तक और पांच प्रतिशत आठवीं तक पढ़े हैं। चार प्रतिशत दसवीं पास, एक प्रतिशत स्नातक होने के बावजूद भीख मांग रहे हैं।
शरद का कहना हैं की उनके पास अभी इतने पैसे और संसाधन नहीं हैं जिससे वो सभी भिक्षुकों को रोजगार से जोड़ सकें। अगर प्रशासन स्तर पर उन्हें सहयोग मिले तो उनका काम और सरल हो जाएगा। दिल्ली की ‘गूँज’ नाम की संस्था शरद को सहयोग कर रही है जिनके सहयोग से इस कोविड काल में भी वो भिक्षिको को रोजगार देने में सक्षम हुए हैं।